ग्यारहवां अध्याय
सात नदियां
वेद सतत रूपसे जलों या नदियोंका वर्णन करता है, विशेषकर दिव्य जलोंका, 'आपो देवी:' या 'आपो दिव्या:', और कहीं-कहीं उन जलोंका जो अपने अन्दर प्रकाशमय सौर लोकके प्रकाशको या सूर्यके प्रकाशको रखते हैं, 'स्वर्वतीरप:' । जलोंका संचरण, जो देचताओंके द्वारा या देयताओंकी सहायतासे मनुष्योंके द्वारा किया जाता है, एक नियत प्रतीक है । जिनकी मनुष्य अभीप्सा करता है, जिन्हें मनुष्यको दिलानेके लिये देवता वृत्रों और पणियोंके साथ निरन्तर युद्धमें संलग्न रयते हैं, वे तीन महान् विजयें हैं गौएं, जल और सूर्य या सौर लोक ''गा:, अप:, स्व: '' । प्रश्न यह. है कि क्या ये संकेत आकाशकी वर्षाओंके लिये है, उत्तर भारतकी नदियोके लिये हैं जिनपर द्रविड़ोंने अधिकार कर लिया था या आक्रमण किया था, जब कि वृत्र थे कभी 'द्रविड़ लोग और कभी उनके देवता, गौएँ थीं वे पशु जिनको वहां के मूल निवासी "डाकुओं" ने बाहरसे आकर बसनेवाले आर्योंसे छीनकर हस्तगत कर लिया थां या छूट लिया था-और फिर पणि भी जो गौओंको छीनते या चुराते हैं, वे थे ही थे, कभी द्रविड़ और कभी उनके देवता; -क्या यही तथ्य है अथवा इसका एक गम्भीरतर एवं आध्यात्मिक अर्थ है । क्या 'स्व:' को विजित कर लेनेका अभिप्राय केवल यह है कि सूर्य जो उमड़ते हुए बादलोंसे ढक गया था या ग्रहणसे अभिभूत था या रात्रिके अन्धकारसे घिरा हुआ था, फिरसे पा लिया गया ? क्योंकि यहां तो कम-से-कम यह नहीं हो सकता कि सूर्यको आर्योंके; पाससे "काली चमड़ीके, " और "बिना नाकवाले'' मनुष्य-शत्रुओंने छीन लिया हो । अथवा 'स्व:' की विजयका अभिप्राय केवल यज्ञके द्वारा स्वर्गको जीतनेसे है ? और इन दोनों अभिप्रायोंमेंसे चाहे जो भी ठीक हो, गौ, जल, और सूर्यके अथवा गौ, जल और आकाशके इस विचित्रसे जोड़का क्या अभिप्राय है ? इसकी अपेक्षा क्या यह ठीक नही है कि यह प्रतीकात्मक अर्थोंको देनेवाली एक पद्धति है जिसमें गौएँ, जो 'गा:' इस शब्द द्वारा 'गायें' और 'प्रफाशकी किरणें' दोनों अर्थोंमे निर्दिष्ट हुई हैं, उच्चतर चेतनासे आनेवाले प्रकाश हैं, जिनका मूल उद्गम प्रकाशका सूर्य है ? क्या 'स्व:' स्वयं अमरताका लोक या स्तर १५५ नही है, जो उस सर्वप्रकासमय सूर्यके प्रकाश यो सत्यसे शासित है जिसे वेदमे महान् सत्य, 'ऋंतम् बृहत्' और सच्चा प्रकश कहा गवा है ? और क्या दिव्य जल, ' आपो देवी:, दिव्या: या स्वर्वती: ', इस उच्चतरं चेतनाके प्रवाह नहीं हैं जो मर्त्य मनपर उस अमरताके लोकसे धाराके रूपमें गिरते हैं ?
निस्संदेह यह आसान है कि ऐसे सन्दर्भ या सूक्त बताये जा सकें जिनमें ऊपरसे देखनेपर इस प्रकारकी किसी व्याख्याकी आवश्यकता प्रतीत न होती हो और उस सूक्तको यह समझा जा सकता हो कि वह वर्षाको देनेकी प्रार्थना या स्तुति है अथवा पंजाबकी नदियोंपर हुए युद्धका एक .लेखा है । परन्तु वेदकी व्याख्या. जुदा-जुदा संदर्भों या सूक्तोको लेकर नहीं की जा सकती । यदि इसका कोई संगत और संबध अर्थ होना है, तो हमें इसकी व्याख्या समग्र रूपमें करनी चाहिये । हो सक्ता है कि हम स्व:'- और गाः'को भिन्न-भिन्न संदभोंमें. बिल्कुल ही भिन्न-भिन्न अर्थ देकर अपनी कठिनाइयोंसे पीछा छुड़ा लें--ठीक वैसे ही जैसे सायण गा:' में कभी गायका अर्थ पाता है, कभी फिरणोंका और कभी एक कमालके ह्रदयलाधके साथ वह जबर्दस्ती ही इसका अर्थ जल कर लेता है ।१ परन्तु व्याख्याकी यह पद्धति केवल. इस कारण ही युक्तियुक्त नहीं हो जाती, क्योंकि वह 'तर्कवाद-संमत' और 'सामान्य बूद्धिके गोचर' परिणामपर पहुँचती है । इसकी अपेक्षा ठीक तोस यह है कि यह तर्क और सामान्य बुद्धि दोनों की ही अवज्ञा करती है । अवश्य ही इसके द्वारा हम जिस भी परिणामपर चाहें पहुंच सकते हैं, परन्तु कोई भी न्यायानुकूल और निष्पक्षपात मन पूरे निश्चयके साथ यह अनुभव नहीं कर सकता कि वही परिणाम वैदिक सूक्तोंका असली मौखिक अर्थ है ।
परन्तु यदि हम. एक अपेक्षाकृत अधिक संगत प्रणालीको लेकर चलें तो अनेकों दुर्लध्य कठिनायां विशुद्ध भौतिक अर्थके विरोधमें आ खड़ी होती हैं । उदाहरणके लिये हमारे सामने वसिष्ठका एक सूक्त (7-49) है, जो दिव्य जलों, 'आपो देवी:, आपो दिव्या:' के लिये है, जिसमें द्वितीय ॠचा इस प्रकार है, 'दिव्य जल जो यो तो खोदे हुए या अपने आप बन गये नालोंमें प्रवाहित होते हैं, वे जिनकी गति समुद्रकी ओर है, जो पवित्र हैं, पावक हैं, वे दिव्य जल मेरी पालना करें ।' यहां तो यह कहा जायगा कि अर्थ _______________ 1. इसी प्रकार वह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वैदिक शब्द ' ॠतम्' का कभी यज्ञ, कभी सत्य, कभी जल अर्थ करता है और आश्चर्य तो यह कि ये सब भिन्न-भिन्न अर्थ एकं ही सक्त में और वह भी कूल पांच वा छ: ॠचाओंवाले | १५६ बिल्कुक स्पष्ट है; ये भौतिक जल हैं, पार्थिव नदियाँ या नहरें हैं--या यदि 'खनित्रिमा:' शब्दका अर्थ केवल "खोदे हुए" यह हो तो ये कुएँ हैं- जिन्हें वसिष्ठ अपने सूक्तमें संबोधित कर रहा है और 'दिव्या:', दिव्य, यह स्तुतिका केवल एक शोभापरक विशेषण है, अथवा यह भी संभव है कि हद इस ॠचा का दूसरा ही अर्थ कर लें और यह कल्पना करें कि यहां तीन प्रकारके जलोंका वर्णन है, -आकाशके जल अर्थात् वर्षा, कुओंका जल, नदियोंका जल । परंतु अब हम इस सूक्तका समग्र रूपमें अध्ययन करते हैं, त. यह अर्थ अधिक देर तक नहीं ठहर सकता । क्योंकि सारा सूक्त इस प्रकार है--
''वे दिव्य जल मेरी पालना करें, जो समुद्रके सबसे ज्येष्ठ ( या सबसे महान् ) जल हैं, जो गतिमय प्रवाहके मध्यमेंसे पवित्र करते हुए चलते हैं, जो कहीं टिक नहीं जाते, जिन्हें वज्रधारी, वृषभ इन्द्रने काटकर बाहर निकाला है ( 1 ) । दिव्य जल जो या तो. खोदी हुई या स्वयं बन गई नहरोंमें बहते हैं, जिनकी गति समुद्रकी ओर है, जो पवित्र हैं, पावक हैं, वे दिव्य जल मेरी पालना करे (2) । जिनके मध्यमें राजा वरूण प्राणियोंके सत्य और नृततको देखता हुआ चलता है, वे जो मधु-स्त्रावी हैं और पवित्र तथा पावक हैं -वे दिव्य जल मेरी पालना करें (3) । जिनमें वरुण राजा जिनमें सोम, जिनमें सब देवता वे दिव्य जल मेरी पालना करें (4)"1 |
यह स्पष्ट है कि वसिष्ठ यहां. उन्हीं जलों, उन्हीं धाराओंके विषयमें कह रहा है जिनका वामदेवने वर्णन किया है--जल जो समुद्रसे उठते हैं और बहकर समुद्रमें चले जाते हैं, मधुमय लहर जो समुद्रसे, उस प्रवाहसे जो वस्तुओंका ह्रदय है, ऊपरको उठती है, जल जो निर्मलताकी धाराएँ हैं, 'ध्रुतस्य धारा :' । वे परमोच्च. और वैश्व चेतन सत्ताके प्रवाह हैं, जिनमें वरुण मर्त्योंके सत्य और अवलोकन करता हुआ गति करता ____________ 1. समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मनुष्यात पुनाना तन्त्यनिविषमानः | इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद सा आपो देवीरिह मामवन्तु ||१|| या आपो दिव्या उत वा खवदन्ति खिनित्रमा उत वा याः स्वयंआः | समुद्रार्या याः शुचमः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||२|| यासां राजा वरुण याति मध्ये अत्यानृते अवश्यग्जनानाम् | मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||३|| यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासुर्ज भवन्ति | विस्वानरो यास्वम्निः प्रविष्टास्ता आपो देवीरह मामवन्तु ||४|| (ॠ० 7-49) १५७ है ( देखिये, यह एक ऐसा वाक्यांश है जो न तो नीचे आती हुई वर्षाओंकी ओर लग सक्ता है न ही भौतिक समुद्रकी ओर ) । वेदका 'वरुण' भारतका नैपचून. (Neptune) नहीं है, नाहीं वह ठीक-ठीक, जैसी कि पहले-पहल योरोपीय विद्वानोंने कल्पना की थी, ग्रीक औरेनस ( Ouranos); आकाश है । यह है आकाशीय विस्तारका, एक उपरले समुद्र का, सत्ताकी विस्तीर्णताका, इसकी पवित्रताका अधिपति; दूसरी जगह यह .कहा गया है कि उस विस्तीर्णतामें उसने पथरहित अनन्तमें पथ बनाया है जिसके अनुसार सूर्य, सत्य और प्रकाशका अधिपति, गति कर सकता है । वहांसे वह मर्त्य चेतनाके मिश्रित सत्य और अनृतपर दृष्टि डालता है... । और आगे इसपर ध्यान देना चाहिये कि ये दिव्य जल वे हैं जिनको इन्द्रने काटकर बाहर निकाला है और पृथ्वीपर प्रवाहित किया है--यह एक ऐसा वर्णन है जो सारे वेदमें सात नदियोंके संबंधमें किया गया है । . यदि इस विषयमें काई संदेह हो भी कि वसिष्ठकी स्तुतिके ये जल वे ही हैं जो वामदेवके महत्त्वपूर्ण सूक्तके जल हैं, 'मधूमान् ऊर्मि:, धृतस्य धारा:', तो यह संदेह ऋषि वसिष्ठके एक दूसरे. सूक्त 7.47 से पूर्णतया दूर हो जाता है । 49वें सूक्तमें उसने संक्षेपसे दिव्य जलोंके विषयमें यह संकेत किया है कि वे 'मधुस्रावी हैं, 'मधुश्च्युत:',और यह वर्णन किया है कि देवता उनमें शक्तिके मदका आनंद लेते हैं, 'उर्ज मदन्ति'; इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि मधु या मधुरता वह 'मधु' है जो 'सोम' है,. आनंदकी मदिरा है, जिसका देवताओंको मद चढ़ा करता है । परंतु 4 7वें सूक्तमें वह अपने अभिप्रायको असंदिग्धरूपसे स्पष्ट कर देता है ।
"हे जलो ! तुम्हारी उस प्रधान लहरका जो इन्द्रका पेय है, जिसे देवत्व-के अन्येषकोंने अपने लिये रचा है, तुम्हारी उस पवित्र, अदूषित, निर्मलताकी प्रवाहक ( घृतप्रुषमु ), मधुमय ( मधुमन्तम्), लहरका आज हम आनन्द ले सकें (1) । हे जलो ! जलोंका पुत्र (अग्नि), वह जो आशुकारी है, तुम्हारी उस अति मधुमय लहरकी पालना करे; हम जौ देवत्वके अन्वेषणमें लगे हैं आज तुम्हारी उस लहरका आस्वादन कर पायें जिससमें इन्द्र वसुओं सहित मदमस्त हो जाता है ( 2 ) । सौ शोधक चालनियोंमेंसे छानकर पवित्रकी हुई, स्वप्रकृतिसे ही मदकारक, वे ( नदियां ) दिव्य हैं और देवताओं की गतिके लक्ष्यस्थान (उच्च समुद्र ) को जाती हैं, वे इन्द्रके कर्मोको सीमित नहीं करतीं, ऐसी नदियोंके लिये हवि दो जो निर्मलतासे भरपूर हो ( धृतवत् ) ( 3 ) । वे नदियां जिन्हें सूर्यने अपनी किरणोंसे रचा है, जिनमेंसे इन्द्रने एक गतिमय लहरको काटकर निकाला है, हमारे लिये उच्च हित (वरिवः)-- १५८ को स्थापित करें | और देवो, सुखकी अवस्थाओंके द्वारा सदा हमारी रक्षा करते रहो ( 4) ''2
यहां हमें वामदेवकी 'मधुमात् उर्मि:', मधुमय मदजनक लहर भिलती है और यह साफ-साफ कहा गया है कि यह मधु, यह भधुरता, सोम है, इन्द्रका पेय है । आगे चलकर 'शतपवित्रा:' इस विशेषणके द्वारा यह और भी स्पष्ट हो गया है, क्योंकि यह विशेषण वैदिक भाषामें केवल 'सोम' को ही सूचित कर सकता है; और, हमें यह भी ध्यानमें लाना चाहिये कि यह विशेषण स्वयं नदियों ही के लिये है और यह कि मधुमय लहर इन्द्र द्वारा उन नदियोंमेंसे बहाकर लायी गयी है, जब कि इसका मार्ग पर्वतों पर वज्र द्वारा वृत्रका वध करके काटकर निकाला गया है । फिर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ये जल सात नदियां हैं, जो इन्द्र द्वारा 'वृत्र' के, अरोधकके, आच्छदकके, पंजेसे छुड़ाकर लायी गयी हैं और नीचे को बहाकर पृथ्वी पर भेजी गयी हैं |
ये नदियां क्या हो सकती हैं जिनकी लहर 'सोम'की मदिरासे भरपूर है पग, से भरपूर है, 'धृत' से भरपूर है, 'उर्ज्'से शक्तिसे, भरपूर है ? ये जल क्या हैं जो देवोंकी गतिके लक्ष्य की ओर प्रवाहित होते हैं; जो मनुष्यके लिये उच्च हित-को स्थापित करते हैं ? पंजाबकी नदियां नहीं, वैदिक ऋषियोंकी मनोवृत्तिमें जंगलियों जैसी असंबद्धता और विक्षिप्तचित्तोंकी सी असंगति रहती थी, इस प्रकारकी कोई जंगली-से-जंगली कल्पना भी हमें इसके लिये प्रेरित नहीं कर सकती कि हम उनके इस प्रकारफे वचनों पर अपना इस प्रकारका अभिप्राय बना सकें । स्पष्ट ही ये सत्य और सुखके जल हैं जो उच्च, परम समुद्रसे प्रशहित होते हैं । ये नदियां पृथ्वी पर नहीं, बल्कि द्युलोकमें बहती हैं; 'वृत्र', जो अवरोधक है, आच्छादक है, उस पार्थिव-चेतना पर जिसमें हम मर्त्य रहते हैं, इनके बहकर आनेको रोके रखता है, जब तक की ' इन्द्र', _______________ 1. आपो यं ब: प्रथमं देवयन्त इन्द्रपानमूर्मिमकृष्वतेळ: | तं वो वयं शुचिमरिप्रमध धूतप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||१|| तुमिर्ममापो मधुमत्तमं वोऽपां नवाववत्वाशुहेमा | यस्मिन्निम्द्रो वसुभिर्मावयाते तमश्याम देवयन्तो वो अश्व ||२|| शतपवित्रा: स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पापः | ता इन्द्रस्य न मिनन्ति व्रतानि सिन्धुभ्यो हव्यं धृतवज्जुहोत ||३|| याः सूर्यो रश्मिभिराततान इन्द्रो अरदद् गातुमूर्मिम् | ते सिन्धवो दरियोषातना नो युर्य पात स्वस्तिभि: सदा नः ||४|| (ॠ. 7-47) १५९ देवरूप. मन, अपने चमकते हुए विद्युतद्धज्रोंसे इस आच्छादकका वध नहीं कर देता और उस पार्थिव चेतनाके शिखरों पर काट-काटकर वहा मार्ग नहीं' बना देता जिसपर नदियोंको बहकर आना होता है । वैदिक ऋरुषियोंके विचार और भाषाकी एकमात्र इसी प्रकारकी व्याख्या युक्तियुक्त. संगत और बुद्धि-गम्य हो सकती है । बाकी जो रहा उसे वसिष्ठ हमारे लिये पर्याप्त स्पष्ट कर देता है; क्योंकि वह कहता है कि ये वे जल हैं जिन्हें सूर्यने अपनी किरणों द्वारा रचा है और जो पार्थिव गतियोंके विसदृशं,.'इन्द्र' के, परम मनके, व्यापारोंको सीमित या क्षीण नहीं करते । दूसरे शब्दोंमें ये. महान् 'ऋतम्. बृहत्'के जल हैं और जैसा कि हमने सर्वत्र देखा है कि यह सत्य सुखको रचता है, वैसा यहाँ हम पाते हैं कि ये सत्यके जल, 'ऋतस्य धाराः', जैसा कि दूसरे उन्हें स्पष्ट ही कहा गया है), ( उदाहरणार्थ: 5-12-2 में कहा गया है, 'जो सत्यके दष्टा, केवल सत्यका ही दर्शन कर, सत्यकी अनेक धाराओंको--ऋतस्य धारा: --काटकर निकाल' )1 मनुष्यके लिये उच्च हित (वरिव: ) को स्थापित करते हैं और उच्च हित है सुख2, दिव्य सत्ताका आनंद ।
तो भी न इन सूक्तोंमें, न ही वामदेवके सूक्तमें सात नदियोंका कोई सीधा उल्लेख आया है । इसलिये हम विश्वामित्रके प्रथम सूक्त ( 3.1) पर आते हैं जो अग्निके प्रति कहा गया है, और इसकी दूसरीसे लेकर चौद-हवीं ॠचा तकको देखते हैं । यक एक लंबा संदर्भ है, परंतु यह पर्याप्त आवश्यक है कि इसे उद्धत किया जाय और इस सारेका ही अनुवाद किया जाय ।
प्राञ्च यज्ञ चकृम् वर्षतां गीः सीभीद्धरिग्न नमसा दुवस्यन्: || दिवः शशासुर्विंदया कवीनां गृत्साय चित् तवसे गातुमीषुः ||२|| मयो दषे मैधिर: पूतदक्षो दिव: सुबन्धुर्जनाषु पृथिव्या: । अविन्दन्नु देर्शतमप्स्वन्त र्देवासो अग्निमपसि स्वसणाम् ।।३।। अवर्धयन् त्सुभगं सप्त यह्वीः श्वेतं जज्ञानामरुषं महित्वा । शिशुं न जतमभ्यारुरश्वा देवासों अग्नि जनिमान् वपुष्यन् ||४|| शुक्रेभिरङैग रज आततन्वान् क्रतुं पुनानः कविभिः पवित्रैः | शोचर्वसान: पर्यापुरपां श्रियो मिमीते बृहतीरनुनाः ||५|| वव्राजा सोमनदतीरदग्धा विवो यह्विरवसाना अनग्ना : | सना अत्र युवतय: सयोनिरेकं गर्भ दधिरे सप्त वाणीः ||६|| ________________ 1. ॠतं चिकित्व ॠतमिच्चाकिद्धि ॠतस्यं धारा अनु तृन्धि पूर्वी: । 2. निःसंदेह् 'वरिवः' शब्द का अभिप्राय प्रायः 'शुख' होता भी है | १६०
स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा वृतस्य योनौ त्रवसे मधुनाम् । अस्युरत्र धेनवः पिम्बमाना मही वस्म्स्य मातर समीची |।७|| वभ्राण: सूनो सहसो व्यद्यौद् दधानः शुक्रा रभसा वपूषि । श्चोतन्ति धारा मधुनो धृतस्य वृषा यत्र वावृधे काव्येन ||८|| पितृश्चिदूशर्यनुवा विवेद व्यस्य धारा असृजव् वि धेनाः | गुहा चरन्तं सलिभिः शिवेभि र्दिवो यह्वीभिर्न गुहा बभूव ||९|| पितुश्च गर्भ जनितुश्च वभ्रे पूर्वीरेको अधयत् पीष्याना: । वृष्णे सपन्ती शुचेये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये३ नि पाहि ||१०|| उरौ महां अनिवाषे ववर्षाऽऽपो अग्निं यशस: सं हि पूर्वी: । ॠतस्य योनावशयद् वमुना जामिनामग्निरपसि स्वसुणाम् ||११|| अक्रो न वभ्रिः समिथे महीनां विवृक्षेय सूनवे भाऋधौकाजीकः । उदुस्रिया जनिता यो जजानाऽपां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः ||१२|| अपां गर्भ दर्शतमोषधीनां वना जजान सुभगा विरूपम् । देवासश्चिन्मनसा सं हि जग्मु: पनिष्ठं जातं तवसं दुदस्यन् ||१३|| बृहन्त इद् भानवो भाॠजीकमग्निं सचन्त विधुतो न शुक्राः । गुहेव वृद्धं सवसि स्वे अन्तरपार उर्बे अमृतं हुहानाः ||१४||
''हमने ( प्राञ्ंच ) प्रकृष्टतमकी तरफ आरोहण करनेके लिये ( यज्ञं चकृम )यज्ञ किया है, हम-चाहते हैं कि (गी:) वाणी(वर्धता) वृद्धिको प्राप्त हो । उन्होंने [देवोंने] ('अग्नि'.) 'अग्नि'को, (समिद्धि:) उसकी ज्वालाओंकी प्रदीप्तिके साथ, (नमसा) आत्मसमर्पणके नमस्कारके साथ, (दुवस्यन्) उसके व्यापारोंमें प्रवृत्त किया है, उन्होंने (कनीनां) द्रष्टाओंके (विदथा) ज्ञानोंको (दिव:) द्यौ से (शशासु:) अभिव्यक्त किया है और वे उस [अग्नि] के लिये (गातुं) एक मार्गको (ईर्षु:) चाहते हैं, (तवसे) इसलिये कि उसकी शक्ति प्रकाशित हो सके, (गृत्साय चित्) इसलिये कि उसकी शब्दकी पानेकी इच्छा पूरी हो सके । (२ )
''(मेधिर:) मेधासे भरपूर (पूतदक्ष:) शुद्ध विवेकवाला (जनुषा) अपने जन्मसे (दिव:) द्यौका (पृथिव्या:) और पृथिवीका (सुबन्धु:) पूर्ण सखा या पूर्ण निर्माता .वह [अग्नि] (मय:) सुखको (दधे) स्थापित करता है, (देवास:) देवोंने (अप्सु अन्त:) 'जलों'के अंदर, (स्वसणाम् अपसि) बहिनों' की क्रियाके अंदर (दर्शतं) सुदृश्य रूपमें (अग्निम्) 'अग्नि'को (अविन्द्रन् उ) पा लिया। ( ३ )
"(सप्त) सात (यह्वी:) शक्तिशाली [नदियों] ने उसे [अग्निको] (अवर्धयन्) प्रवृद्ध किया, (सुभगं) उसे जो पूर्ण रूपसे सुखका उपभोग करता १६१ है (श्वेतं जज्ञानं) जो अपने जन्मसे सफेद है, (अरुषं महित्वा) बड़ा होकर अरुण हो जाव है । वे [नदियां] (अभ्यारु:) .उसके चारों ओर गयीं और उन्होंने उसके लिये प्रयत्न किया; (शिशु न जातम् अश्वा:). उन्होंने जो नवजात शिशुके पास घोड़ियोंके तुल्य थीं; (देवास:) देवोंने (अग्निं) अग्निको (जनिमन्) उसके जन्मकालमें (वपुष्यन्) शरीर दिया । (४)
'' (पवित्रै: कविभि:) पवित्र कवियों [ज्ञानाधिपतियों] की सहायतासे (ॠतुं) कर्मपरक संकल्पको (पुनान:) पवित्र करते हुए उसने [अग्नि ने] (शुक्रै:अङ्ग:) अपने साफ, चमकीले अंगोंसे .(रज:) मध्यलोकको (आततन्वान्) ताना और रचा; (अपाम् आयु: परि) जलोंके समस्त जीवनके चारों ओर (शोचि: वसान:) चोगेकी तरह प्रकाशको पहने हुए उसने अपने अंदर (श्रिय:) कान्तियोंको (मिमीते) रचा जो (वृहती:) विशाल तथा (अनूना:) न्यूनता- रहित थी । (५)
''अग्निने (दिव: यह्वी: ) द्युलोककी शक्तिशाली [नदियों] के इधर-उधर (सीं वव्राज) सर्वत्र गतिकी जो [नदियां] (अनदती:) निगलती नहीं, (अब्धा: ) न ही वे आक्रान्त होती हैं, [अवसना:] वे वस्त्र नहीं पहने हुई थीं, (अनग्ना:) न ही वे नंगी थीं । (अत्र) यहां (सना) उन शाश्वत (युवतय:) और सदा-युवती देवियोंने (सयोनी:) जो समान गर्भसे उत्पन्न हुई हैं, (सप्त वाणी:) जो सातं वाणी-रूप थीं (एक गर्भ दधिरे) एक शिशुको गर्भरूपसे धारण किया है । (६ )
"(अस्य) इसके (संहत:) पुंजीभूत समुदाय, (विश्वरूपा:) जो विश्वरूप थे, (धृतस्य योनौ) निर्मलताके गर्भमें, (मधुनां स्रवथे) मधुरताके प्रवाहमें (स्तीर्णा:) फैले पड़े थे, (अत्र) यहां (धेनव:) प्रीणयित्री नदियां (पिन्वमाना:) अपने-आपको पुष्ट करती हुई (अस्थु:) स्थित हुई और (दस्यस्य) कार्यको पूरा करनेवाले देव [अग्नि] की (मातरा) दो माताएँ (मही) विशाल तथा (समीची) समस्वर हो गयीं । (७ ) . ''(बचाण: ) उनसे धारण किया हुआ तू, (सहस: सूनो) ओ शक्तिके पुत्र ! (शुक्रा रभसा वपूंषि दधान:) चमकीले और हर्षोन्मादी शरीरोंको धारण किये हुए (व्यद्यौत्) विद्योतमान हुआ । (मधुन:) मधुरताकी (घृतस्य) निर्भलताकी (धारा:) धाराएँ (श्चोतन्ति) निकलकर प्रवाहित हो रही हैं, (यत्र) जहां (वृषा) समृद्धिका 'बैल' (काव्येन) ज्ञानके द्वारा (वावृधे) बढ़कर बड़ा हुआ है । (८)
(जनुषा) जन्म लेते ही उसने (पितु: चित्) पिताके .(ऊध:) समृद्धिके स्रोतको (विवेद) ढूंढ़ निकाला और उसने (अस्य) उस [पिता] की (धाराः) १६२ धाराओंको (वि असृजत्) खुला कर दिया, उस [पिता]की (धेना:) नदियों को (वि [असृजत्] खुला कर दिया । (शिवेभिः सखिभि:) अपने हितकारी सखाओंके द्वारा और (दिवः ह्वीभि:) .आकाशकी महान् [नदियों] फे द्वारा उसने (गुहा चरन्तं) सत्ताके रहस्यमय स्थानोंमें विचरते हुए उसे [पिताको] पा लिया (न गुहा बभूव) तो भी स्वयं वह उसकी रहस्यमयताके अंदर नहीं खो गया । (१ )
''उसने (पितु: च) पिताके और (जनितु: च) जनिता, उत्पन्न करनेवालेके (गर्भ) गर्भस्थ शिशुको (बभ्रे) धारण किया, (एक:) उस एकने (पूर्वी:) अपनी अनेक माताओंका (पीप्याना: ) जो वृद्धिको प्राप्त हो रही थीं, (अधयत्) दुग्धापान किया, सुखोपभोगप्राप्त किया । (अस्मै सूचये वृष्णे) इस पवित्र पुरुष,में ['पुरुष'के लिये] (मनुष्ये उभे) मनुष्यके अंदर रनेवाली ये जो दो शक्तियां (द्यौ और पृथिवी] (सपत्नी सबंधु) एकसमान पतिवाली, एकसमान प्रेमीवाली होती हैं, [उभे निपाहि] उन दोनोंकी तू रक्षा कर । (१०) .
''(अनिबाधे उरौ) निर्बाध विस्तीर्णतामें (महान्) महान् वह (ववर्ध) वृद्धिको प्राप्त हुआ (हि) निश्चयसे (पूर्वी: आप:) अनेक जलोंने (यशस:) यशस्विताके साथ (अग्निं) अग्निको (सं) सम्यक्तया प्रवृद्ध किया । (ऋतस्य योनौ) सत्यके स्रोतमें वह (अशयत्) स्थित हुआ, (दमूना:) वहां उसने अपना घर बना लिया, (अग्नि:) अग्निने (जामीनां स्वसृणाम् अपसि) अविभक्त हुई बहिनोंके व्यापारमें । (११ )
''(अक्र:) वस्तुओंमें गति करनेवाले और (बभ्रिः न) उन्हें थामनेवाले के रूपमें वह (महिनाम्) महान् (समिथे) संगममे(दिदृक्षेय:) दर्शनकी इच्छावाला, (सूनवे ) सोम-रसके अभिषोताके क्तिए (भाऋजीक:) अपनी दीप्तियोंमें ॠजु (य: जनिता) वह, जो किरणोंका पिता था,. उसने अब (उस्रिया ) उन किरणोंको (उत् जजान) उच्चतर जन्म वे दिया,--(अग्नि:) उस अग्निने (अपां गर्भ:) जो जलोंका शिशु था, (यह्व:) शक्तिशाली और (नृतम: ) सबसे अधिक बलवान् था । (१२ )
''(अपां) जलोंके और (ओषधीनां) ओषधियोंके, पृथ्वीके उद्धिदोंके (दर्शतं) सुदृश्य (गर्भ ) गर्भजातको (वना) आनंदकी देवीने अब (विरूपं जजान) अनेक रूपोंमें पैदा-कर दिया, (सुभगा) उसने जो नितान्त सुखवाली है । (देवास: चित्) देवता भी (मनसा) मनके द्वारा (सं जग्मु: हि) उसके चारों ओर एकत्रित हुए और (दुवस्यन्) उन्होंने उसे उसके कार्यमें लगाया (पनिष्ठं तवसं जातम्) जो प्रयत्न करनेके लिये बड़ा बलवान् और बड़ा शक्तिशाली होकर पैदा हुआ था । (१३) १६३ '' ( बृहन्त इत् भानव:) वे विशाल दीप्तियां (अग्निम्) अग्निके साथ ( सचन्त) संसक्त हो गयीं, जो अग्नि ( भाऋजीकं) अपने प्रकाशोंमें ॠजु था, वे (विद्युत: न शुक्राः ). चमकीली विद्युतोंके. समान थीं, ( अपारे ऊर्वे ) अपार विस्तारमें ( लेस्वे सदसि अन्त: ) अपने स्वकीय स्थानमें, अंदर ( गुहेव ) सत्ताके गुह्म स्थानोंमें, मानो गुहामें. (वृद्धं) बढ़ते हुए उस [अग्नि] से उन्होंने ( अमृतं दुहाना:) अमरताको दुहकर निकाला । ( १४ ) ''
इस संदर्भका कुछ भी अर्थ क्यों न हो,--और यह पूर्ण रूपसे स्पष्ट है कि इसका कोई रहस्यमय अभिप्राय है और यह केवल कर्मकाण्डी जंगलियों की याज्ञिक स्तुतिमात्र नहीं है,--सात नदियां, जल, सात बहिनें यहां पंजाबकी सात नदियां नहीं हो सकतीं । वे जल जिनमें देवोंने सुदृश्य अग्निको खोजकर पाया है, पार्थिव और भौतिक धाराएँ नहीं हो सकती; यह अग्नि जो ज्ञान द्वारा प्रवृद्ध होता है और सत्यके स्रोतमें अपना घर तथा विश्रामस्थान बनाता है, जिसकी आकाश और पृथ्वी दो स्त्रीयां तथा प्रेमिकाएँ हैं, जो दिव्य जलों द्वारा अपने निजी घर, निर्बाध विस्तीर्णताके अंदर प्रवृद्ध हुआ है और उस अपार असीमतामें निवास फरसा हुआ जो प्रकाशयुक्त देवोंको परम अमरता प्रदान करता है, भौतिक आगका देवता नहीं हो सकता । अन्य बहुतसे संदर्भोंकी भाँति ही इस संदर्भमें वेदके मुख्य प्रतिपाद्य विषयका रहस्यमय, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक स्वरूप अपने-आपको प्रकट कर देता है, यह नहीं कि ऊपरी सतहके नीचे रहकर, यह नहीं कि निरे कर्मकाण्डके आवरणके पीछे छिपकर, किंतु खुले तौरपर, बलपूर्वक-बेशक एक प्रच्छन्न रूपमें, पर वह .प्रच्छन्नता ऐसी है जो पारदर्शक है, जिससे वेदका गुह्म सत्य यहां, विश्वामित्रके सूक्तकी नदियोंके समान, ''न आवृत, न ही नग्न'' दिखायी देता है ।
हम देखते हैं कि ये जल वे ही हैं जो वामदेवके सूक्त और वसिष्ठके सूक्तके हैं, 'घृत' और ' मुधु'से इनका निकट सम्बन्ध है,--"धृतस्व योनौ स्रवथे मधुनाम्, श्चोतन्ति धारा मधुनो धृतस्य'' ; थे सत्यकी ओर ले जाते हैं, वे स्वयं सत्यका स्रोत हैं, वे निर्बाध और अपार विस्तीर्णताके लोकमें तथा यहाँ पृथ्वीपर प्रवाहित होतें है । उन्हें अलंकाररूपमें प्रीणयित्री गौएँ ( घेनव:), घोड़ियाँ ( अश्वा: ) कहा गया है, उन्हें 'सप्त वाणी:', रचनाशक्ति रखनेवाली 'वाग्'-देवीके सात शब्द कहा गया है,--यह 'वाग्' देवी है 'अदिति'की, परम प्रकृतिकी, अभिव्यंजक शक्ति जिसका 'गाय' रूपसे वर्णन किया गया है, ठीक जैसे कि देव या पुरुषको वेदमें 'वृषभ' या 'वृष्ण' अर्थात् 'बैल' कहा गया है । इसलिये वे सम्पूर्ण सत्ताके सात तार है, एक सचेतन सद्धस्तुके व्यापारकी सात नदियाँ, धाराएँ या रूप हैं | १६४ हम देखेंगे कि उन विचारोंके प्रकाशमें जिन्हें हमने वेदके प्रारंभमें ही मघुच्छन्दसके सूक्तमें पाया है और उन प्रतीकात्मक व्याख्याओंके प्रकाशमें जो अब हमें स्पष्ट होने लगी है; यह संदर्भ जो इतना अधिक अलंकारमय, रहस्यमय, पहेली-सा प्रतीत होता है, बिल्कुल ही सरल और संगत लगने लगता है, जैसे कि वस्तुत: ही वेद के सभी संदर्भ जो पहिले लगभग अबुद्धिगम्यसे प्रतीत होते हैं तब सरल और संगत लगने लगते हैं जब उनका ठीक मूलसूत्र मिल जाता है । हमें बस केवल अग्निके आध्यात्मिक व्यापारभरको नियत करना है, उस अग्निके जो पुरोहित है, युद्ध करनेवाला है, कर्मकर्त्ता है, सत्यको पानेवाला है, मनुष्यके लिये आनन्दको अधिगत करानेवाला है; और अग्निका यह आध्यात्मिक व्यापार हमारे लिये ऋग्वेदके प्रथम सूक्तमें अग्निविषयक मधुच्छन्दसके वर्णन द्वारा पहले से. ही नियत है, --'' वह जो कर्मोंमें द्रष्टाका संकल्प है, जो सत्य है और नानाविध अन्त:प्रेरणाका महाधनी है ।''1 अग्नि है देव, सर्व-द्रष्टा, जो सचेतन शक्तिके रूपमें व्यक्त हुआ है अथवा, आधुनिक भाषामें कहें तो, जो 'दिव्य-संकल्प' या 'विश्व-संकल्प' है, जो पहले गुहामें छिपा होता है और शाश्वत लोकोंका निर्माण कर रहा होता है, फिर व्यक्त होता है, 'उत्पन्न' होता है और मनुष्यके अन्दर सत्य तथा अमरत्वका निर्माण करुता है ।
इसलिये विश्वामित्र इस सूक्तमें जो कहता है वह यह है कि देवता और मनुष्य आन्तरिक यज्ञकी अग्नियोंको जलाकर इस दिव्य. शक्ति. ( अनिदेव ) को प्रदीप्त कर लेते हैं, वे इसके प्रति अपने पूजन और आत्म-समर्पणके द्वारा इसे कार्य करने योग्य बना लेते हैं, वे आकाशमें अर्थात् विशुद्ध मनोवृत्तिमें, जिसका ' प्रतीक ' द्यौ, है, द्रष्टाओंके ज्ञानोंको, दूसरे शब्दोंमें जो मनसे अतीत है उस सत्य-चेतनाके प्रकाशोंको अभिव्यक्त करते है और ऐसा वे इसलिए करते हैं कि वे इस दिव्य शक्तिके लिये मार्ग. बना सकें, जो अपने पूरे बलके साथ, सच्ची आत्माभिव्यक्तिके शब्दको निरन्तर पाना चाहती हुई, मनसे परे पहुंचनेकी अभीप्सा रखती है । यह दिव्य संकल्प अपनी सब क्रियाओंमें दिव्य ज्ञानके रहस्तको रखता हुआ, 'कविक्रतु:', मनुष्यके अन्दर मानसिक एवं भौतिक चेतनाका, ' दिव: पूथिव्या :, .मित्रवत् सहायक होता है या उसका निर्माण करता है, बुद्धिको पूर्ण करता है, विवेकको शुद्धं करता है, जिससे वे विकसित होकर "द्रष्टाओंके ज्ञानों" को ग्रहण करने योग्य हो जाते है और उस अतिचेतन सत्यके द्वारा जो इस प्रकार हमारे. लिये _________________ ।. कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । १६५ चेतनागम्य कर दिया जाता है, वह दृढ़ रूपसे हममें आनन्दफो स्थापित कर देता है, ( ऋचा २, ३ ) । . इस संदर्भके अवशिष्ट भागमें इस दिव्य सचेतन-शक्ति, 'अग्नि', के मर्त्य और भौतिक चेतनासे उठकर सत्य तथा आनन्दकी अमरताकी ओर आरोहण करनेका वर्णन है, जो अग्नि मर्त्योमें अमर है, जो यज्ञमें मनुष्यके सामान्य संकल्प और ज्ञानका स्थान लेता है । वेदके ॠषि मनुष्यके लिये पांच जन्मों-का वर्णन करते हैं, प्राणियोंके पांच लोकोंका जहां कर्म किये जाते है, '' पञ्च-जना: पञ्चक्षिती: या पञ्चक्षिती: ।'' द्यौ और पृथ्वी विशुद्ध मानसिक और भौतिक चेतनाके द्योतक हैं, उनके बीचमें है अन्तरिक्ष, प्राणमय या वातमय चेतनाका मध्यवर्ती या संयोजक लोक । द्यौ और पृथिवी हैं 'रोदसी', हमारे दो लोक;. पर इनको हमें पार कर जाना है, क्योंकि सभी हम उस अन्य लोकमें प्रवेश पा सकते हैं जो विशुद्ध मनके द्युलोकसे अतिरिक्त एक और ऊपरका द्युलोक है--वृहत्, विशाल द्यौ है जो असीम चेतना, 'अदिति', का आधार बुनियाद ( बुध्न ) है । यह द्यौ है वह सत्य जो सर्वोच्च त्रिविघ लोकको, ' अग्नि'के, 'विष्णु' के उन उच्चतम पदों या स्थानों ( पदानि, सदांसि ) को माताके, गौके, 'अदिति'के उन परम 'नामों'को थामता है । यह वृहत् या सत्य 'अग्नि'का निजी या वास्तविक स्थान अथवा घर कहा गया है, 'स्वं दमम्, स्वं सद:' । ' अग्नि'को इस सूक्तमें पृथिवीसे अपने स्व-कीय स्थानकी ओर आरोहण करता हुआ वर्णित किया गया है ।
इस दिव्य शक्तिको देवोंने जलोंमें, बहिनोंकी क्रियामें सुदृश्य हुआ पाया है । ये जल सत्यके सप्तविघ जल हैं, दिव्य जल हैं, जो हमारी सत्ताके उच्च शिखरोंसे इन्द्र द्वारा नीचे लाये गये हैं । यह दिव्य शक्ति पार्थिव उद्धिदों, 'ओषघी:' के अन्दर, उन वस्तुओंके अन्दर जो पृथ्वीकी गर्मी ( ओष ) को धारे रखती हैं, छिपी होती है और एक प्रकारकी शक्तिके द्वारा, दो 'अरणियों'--पूथिवी और आकाश-के घर्षण द्वारा इसे प्रकट करना होता है । इसलिये इसे पार्थिव उद्धिदों ( ओषधियों ) का पुत्र और पृथिवी तथा द्यौ:का पुत्र कहा गया है; इस अमर शक्ति को मनुष्य बड़े परिश्रम और बड़ी कठिनाईसे भौतिक सत्ता पर पवित्र मनकी क्रियाओंसे पैदा करता है । परन्तु दिव्य जलोंके अन्दर 'अग्नि' सुदृश्य रूपमें पाया गया है ( ॠचा ३का उत्तरार्ध) और अपने सारे बलसहित तथा अपने सारे ज्ञानसहित और अपने सारे सुखोप-भोगसहित आसानीसे पैदा हो गया है, वह पूर्णतया सफेद और शुद्ध है, अपनी क्रियासे वह अरुण हो जाता है जब कि वह प्रवृद्ध होता है । उसके जन्मसे ही देवता उसे शक्ति, तेज और शरीर दे देते हैं; सात शक्तिशाली १६६ नदियां उसके सुखमें उसे प्रवृद्ध करती है; वे इस महिमाशाली नवजात शिशुके चारों ओर गीत करती हैं और उसपर घोड़ियों, 'अश्वा:' के रूपमें प्रयत्न करती हैं ( ॠचा ४ ) ।
नदियाँ जिनको बहुधा 'घेनव:' अर्थात् 'प्रीणयित्री गौएं' यह नाम दिया गया है, यहाँ 'अश्वा:' अर्थात् 'घोड़िया' इस नामसे वर्णित हुई हैं, क्योंकि जहाँ 'गौ' ज्ञानरूपिणी चेतनाका एक प्रतीक है, वहाँ 'अश्व', घोड़ा, प्रतीक है शक्तिरूपिणी चेतना का । 'अश्व', घोड़ा, जीवनकी क्रियाशील शक्ति है, और नदियां जो पृथिवी पर अग्निके चारों ओर प्रयत्न करती हैं, जोवनके जल बन जाती हैं, उस जीवनके, प्राणमय क्रिया या गतिके, उस 'प्राण'के जो गति करता है और क्रिया करता है और इच्छा करता है तथा भोगता है । अग्नि स्वयं प्रारंभमें भौतिक ताप या शक्ति-रूप होता है, फिर अपने-आपको घोड़ेके रूपमें प्रकट करता है और तभी वह फिर द्यौ:की अग्नि बन पाता है । उसका पहला कार्य यह है कि जलोंके शिशुके रूपमें वह मध्यलोक-को, प्राणमय या क्रियाशील लोकको उसका पूर्ण रूप और विस्तार और पवित्रता प्रदान करे, रज आततन्वान्, अपने विशुद्ध, चमकीले अंगोंसे मनुष्य-के अन्दर व्याप्त होता हुआ, इसकी अन्त:-प्रवृत्तियोंको और इच्छाओंको, कर्मोंमें इसके पवित्र हुए संकल्पको ( ॠतम् ), अतिचेतन सत्य और ज्ञानकी पवित्र शक्तियोंके द्वारा, 'कविभि: पवित्रै:', ऊपर उठाता हुआ वह मनुष्यके बातमय जीवनको पवित्र करता है । इस प्रकार वह जलोंके समस्त जीवनके चारों ओर अपनी विशाल कांतियोंको ओढ़ता है, धारण करता है, जो कांतियां अब 'बृहती:' विशाल हो गयी हैं, वासनाओं और अन्ध-प्रेरणाओंकी जीर्ण-शीर्ण तथा सीमित गतिमात्र नहीं रही हैं । ( ॠचा ४, ५)
सप्तविध जल इस प्रकार ऊपर उठते हैं और विशद्ध मानसिक क्रियाएं, द्युलोककी शक्तिशाली नदियाँ ( दिव: यहृी: ) बन जाते हैं । वे नदियाँ वहाँ अपने-आपको प्रथम, शाश्वत, सदा-युवती शक्तियोके रूपमें, दिव्य मन-की सात वाणियों या आधारभूत रचनाशील ध्वनियों, 'सप्त वाणी:'के रूपमें प्रकट करती हैं, जो यद्यपि भिन्न धाराएं हैं, पर उनका उद्गम एक ही है- क्योंकि वे सब एक ही पराचेतन सत्यके गर्भमेंसे निकली हैं । विशुद्ध मनका यह जीवन वातमय जीवनके सदृश नहीं है, जो अपनी मर्त्य सत्ताको स्थिर रखनेके लिये अपने उद्देश्योंको निगलता रहता है; इसके जल निगलते नहीं, पर वे विनष्ट, विफल भी नहीं होते । वे हैं शाश्वत सत्य जो मानसिक रूपके एक पारदर्शक आवरणमें ढके हुए हैं; इसलिये यह कहा गया है, न वे वस्त्र पहने हुए है न नग्न है (ॠचा ६) । १६७ पर यह अंतिम अवस्था नहीं है । 'यह शक्ति उठकर इस मानसिक निर्मलताके (धृतस्य ) गर्भ या जन्मस्थानके अन्दर चली जाती है जहां जल दिव्य मधुरताकी धाराओंके रूपमें प्रवाहित होते है (स्रवथे मधूनाम् ); वहां जिन रूपोंको यह धारण करती है वे विश्वरूप हैं, विशाल और असीम चेतनाके पूंजीभूत समुदाय हैं । परिणामत: निम्नतर लोककी जो प्रीणयित्री नदियां हैं वे इस अवरोहण करती हुई उच्चतर मधुरताके द्वारा पुष्ट हो जाती है, और मानसिक तथा भौतिक चेतनाएं, जो सर्वसाधक संकल्पकी दो प्रथम माताएं हैं, सत्यके इस प्रकाश द्वारा, असीम सुखसे आनेवाले इस पोषणके द्वारा अपनी समग्र विशालताके साथ पूर्ण रूपसे सम तथा सभ्स्वर हो जाती हैं । वे ' अग्नि'की पूर्ण .शक्तिको, उसकी विद्युतोंकी चमकको, उसके व्यापक रूपों, विश्वरूपोंकी महिमा और हर्षोन्मादको धारण करती हैं । क्योंकि जहाँ स्वामी, 'पुरुष', 'समृद्धिका बैल', अतिचेतन सत्यके ज्ञान द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है, वहाँ सदा ही निर्मलताकी धाराएं और सुखकी धाराएं बहा करती हैं । (ऋचा ७, ८ )
सब वस्तुओंका 'पिता' है स्वामी और पुरुष; वह वस्तुओंके गुह्म स्रोतके अन्दर, अतिचेतनके अन्दर छिपा हुआ है; 'अग्नि' अपने साथी देवोंके साथ और सप्तविध 'जलों'के साथ अतिचेतनके अन्दर प्रवेश करता है, पर इसके कारण हमारी सचेतन सत्तासे बिना अदृश्य हुए ही वह वस्तुओंके 'पिता'के मधुमय ऐश्वर्यके स्रोतको पा लेता है और उसे पाकर हमारे जीवन पर प्रवा-हित कर देता है । वह गर्भ धारण करता है और वह स्वयं ही पुत्र--पवित्र 'कुमार', पवित्र पुरुष, वह एक, अपने विश्वमय रूपमें आविर्भूत मनुष्य-का अन्त:स्थ आत्मा-बन जाता है; मनुष्यके अन्दर रहनेवाली मानसिक और भौतिक चेतनाएं उसे अपने स्वामी और प्रेमीके रूपमें स्वीकार करती है; परंतु यद्यपि वह एक है, तो भी वह नदियोंकी,. बहुरूप विराट् शक्तियों-की अनेकविध गतिका आनंद लेता है । ( ॠचा ९, १० )
उसके बाद हमें स्पष्ट रुपसे यह कहा गया है कि यह असीम जिसके अन्दर वह प्रविष्ट हुआ है और जिसके अन्दर वह वढ़ता है, जिसमें अनेक 'जल' विजयशालिनी यशस्विताके साथ अपने लक्ष्य पर पहुंचते हुए (यशस: ) उसे प्रवृद्ध करते हैं, वह निर्बाध विशालता है जहां 'सत्य' पैदा हुआ है, जो अपार नि:सीमता है, उसका निजी स्वाभाविक स्थान है जिसमें अब वह अपना घर बनाता है । वहां 'सात नदियां', 'बहिनें', एक उद्गमवाली होती हुई भी अब पृथक्-पृथक् होकर कार्य नहीं करती जैसा कि वे पूथिवी पर और मर्त्य जीवनमें करती हैं, बल्कि इसके विपरीत वे वहाँ अविच्छेद्य १६८ सहेलियोंके रूपमें कार्य करती हैं (जामीनामू अपसि स्वसणाम् ) । इन शक्ति-शाली नदियोंके उस पूर्ण संगम पर 'अग्नि' सब वस्तुओंमें गति करता है और सब वस्तुओंको थामता है; उसके दर्शन (दृष्टि ) को किरणें पूर्णतया ऋजु, सरल होती हैं अब वे निन्ततर कुटिलतासे प्रभावित नहीं होतीं; वह जिस-मेंसे ज्ञानकी किरणें, जगमगाती हुई गौएं, पैदा हुई थीं, अब उन्हें (किरणों या गौओंको ) यह नया उच्च और सर्वश्रेष्ठ जन्म दे देता है; अर्थात् वह उन्हें दिव्य ज्ञानमें, अमर चेतनामें परिणत कर देता है । (ऋचा ११, १२ )
यह भी उसका अपना ही नवीन और अंतिम जन्म है । वह जो पृथिवी-के उद्धिदोंसे शक्तिके पुत्रके रूपमें पैदा हुआ था, वह जो जलोंके शिशुके रूपमें पैदा हुआ था अब अपार, असीममें, 'सुखकी देवी'के द्वारा, उसके द्वारा जो समग्र रूपसे सुख ही सुख है अर्थात् दिव्य सचेतन आनन्दके द्वारा, अनेक स्थोंमें जन्म लेता है । देवता या मनुष्यके अन्दरकी दिव्य शक्तियाँ मनका एक उपकरणके तौर पर प्रयोग करके वहाँ उसके पास पहुंचती हैं | वे, उसके चारों ओर एकत्र हो जाती हैं, तथा इस. नवीन, शक्तिशाली और सफलतादायक जन्ममें उसको जगत्के महान् कार्यमें लगाती हैं ।. वे, उस विशाल चेतनाकी दीप्तियां, इस दिव्य शक्तिके साथ. संसक्त होती हैं तथा इसकी चमकीली विजलियोंके समान लगती हैं और उसमेंसे जो .अतिचेतनमें, अपार विशालतामें, अपने निजी घरमें रहता है, वे. मनुष्यके लिये अमरताको दुहती हैं, ले आती हैं । ( १३, १४ )
तो यह है अलंकारोंके पदके पीछे छिपा हुआ गंभीर, संगत, प्रफाशमय अर्थ जो सात नदियोंके, जlलोंके, पांच लोकोंके, 'अग्नि'के जन्म तथा आरोहण के वैदिक प्रतीकका वास्तविक आशय है, जिसे इस रूपमें भी प्रकट किया गया है कि यह मनुष्यकी तथा देवताओंकी-जिनकी प्रतिकृति मनुष्य अपने अन्दर बनाता है--ऊर्ध्यमुख यात्रा है जिसमें वह सत्ताकी विशाल पहाड़ीके सानुसे सानु तक (सानो: सानुम् ) पहुंचता है । एक बार यदि हम इस अर्थको प्रयुक्त कर लें और 'गौ'के प्रतीक तथा 'सोम'के प्रतीकके वास्तविक अभिप्रायको हृदयंगम कर लें और .देवताओंके आध्यात्मिक व्यापारोंके विषय-में ठीक-ठीक विचार बना लें, तो इन प्राचीन वेदमंत्रोंमें जो ऊपरसे दीखने-वाली असंगतियां,. अस्पष्टताएं तथा क्लिष्ट क्रमहीन अस्तव्यस्तता प्रतीत होती हैं वे सब क्षण भरमें लुप्त हो. जाती हैं । वहां स्पष्ट रूपमें, बड़ी आसानीके साथ, बिना खींचातानीके प्राचीन रहस्यवादियोंका गंभीर और उज्जवल सिद्धान्त, वेदका रहस्य, अपने स्वरूपको खोल देता है । १६९
|